आतंक की परिभाषा क्या है ?

थोड़ी देर पहले खबर आई कि पीएमके अध्यक्ष रामदौस प्रभाकरण को आतंकवादी नहीं मानते।राजीव का कातिल है वो..पीएमके अध्यक्ष रामदौस प्रभाकरण को आतंकवादी नहीं मानते।मुझे याद है पत्रकारिता पढ़ाने वाली भारत सरकार की एकमात्र संस्था में जब प्रवेश परीक्षा दे रहा था ..आतंकवाद के प्रश्न के जवाब में लिख रहा था। मैंने लिखा था आतंकवाद की परिभाषा सीमा दर सीमा बदल जाती है।मैं शायद इसलिए फेल कर दिया गया।लेकिन आज जिस तरह के बयान हमारे कर्णधार दे रहे हैं उससे यही लगता है कि प्रभाकरण उन्ही के बीच का है, बस सीमा का फर्क है।प्रभाकरण श्रीलंका को खोखला कर रहा है जबकि उसके हितैषी उसके भाई हमारे देश को खोखला कर रहे हैं।ज़रा ध्यान दीजिए इच्छा जताइये कि एंटी इकम्बेंसी फैक्टर काम आए और विपक्षी सरकार बनाए फिर इन मंत्रियों की पोल खुलेगी कि पांच साल में इन्होने क्या गुल खिलाए कितने सेंट किट्स मामले बनाए...खैर ये एक अलग विषय है इस पर फिर कभी।लेकिन यहां सबसे बड़ा सवाल उठता है कि हम दोहरे मापदंड क्यों अपनाते हैं। एक तरफ हम श्रीलंका को अस्थीर देखना चाहते हैं, दूसरी तरफ हम पाकिस्तान से उम्मीद करते हैं कि वो उन आतंकवादियों को पनाह न दें जिन्हे उनके आला क्रांतिकारी मानते हैं- फ्रिडम फाइटर। प्रभाकरण किसके लिए लड़ रहा है?  क्या ये बेहतर नहीं होता कि वो वहां के संसद में तमिलों का प्रतिनिधित्व करता और सिंहलियों के बीच खुद और तमिलों के कद को बड़ा कर देता ।इतने सालों से प्रभाकरण, लाखों तमिलों को मौत के घाट उतरवा चुका है आखिर किसे क्या मिला ?  अगर वो आज नहीं होता और सिंहली लगातार बेइंतहा जुर्म भी कर रहे होते तो भी इतने लोगों की जान नहीं जाती।तमिलों को बड़े कैनवास पर नहीं ला सका प्रभाकरण। आज इतने सालों की लड़ाई के बाद भी तमिल वहीं खड़े हैं जहां वो एलटीटीई की स्थापना(1976) से पहले थे।अगर प्रभाकरण को सुभाष, भगत के साथ साथ गांधी भी पसंद होते तो आज तस्वीर कुछ और होती श्रीलंका में तमिलों की।आखिर कोई ये समझने को तैयार क्यों नहीं है कि लड़ाई कभी एक तरफा हो ही नहीं सकता।ये बात अमेरिका जैसे दादा को भी एहसास हो गया होगा, अलकायदा और तालिबान से लड़ते हुए।आप एक चप्पल मारेंगे तो सामने वाला दो चप्पल लेकर खड़ा दिखेगा।हां एक फायदा जरूर हुआ तमिलों को, उनकी आवाज अंतर्राष्ट्रीय हो गयी है। लेकिन ये तो भारत के कूटनीतिक प्रयास से भी संभव था।कुछ लोग मानते हैं कि एलटीटीई को खड़ा भारत ने ही किया।लेकिन सवाल उठता है कि अब भारत ने रुचि लेनी कम क्यों कर दी। क्या सच में श्रीलंका इतना बड़ा देश है हमारे लिए कि हमें पाकिस्तान की तरह हथकंडे अपनाने की जरूरत पड़े।शायद नहीं लेकिन भारतीय लिडरों की बेचैनी साफ बयां कर रही है कि वो प्रभाकरण को क्यों खड़ा देखना चाहते है जैसा मैंने पहले के लेख में बता चुका हूं ये नेता किस तरह नक्सलियों का इस्तेमाल वोट के लिए कर रहे हैं, कैसे विरप्पन का इस्तेमाल पैसों और दुश्मनों से निपटने के लिए किया था इन नेताओं ने।अभी वो पहलू भी उजागर होना बाकि है जिससे ये पता चल सके कि राजीव गांधी के बढ़ते कद से किन नेताओं को समस्या आ रही थी।मुझे तो लगता है कहीं करुणानिधि, रामदौस और गृहमंत्री जिस तरह का बयान दे रहे हैं कहीं भारतीय खुफिया या सुरक्षा एजेंसियों का इस्तेमाल प्रभाकरण जैसे आतंकवादी को बचाने में न किया जाए।

टिप्पणियाँ

Naruto ने कहा…
Hi,
I am Bipul. I have just gone through this thought which you have put over here. I am agree with your view upto certain extent. But the irony is this brings us more questions than answers, to name a few
--> In last four decades how many problem LTTE has solved for their occupied region- which could have been the actual wining deed

--> The most basic question, this the problem other country, why an Indian politician is making noise on it ( as if India don't have better job to do)

--> Aern't people are tired of killing each other for someone others belief

Thats all , Bip

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