ट्रम्प और भारत की चुनौतियां

बहुत से विश्लेषक मान कर चल रहे हैं कि डोनाल्ड ट्रंप के सबसे शक्तिशाली देश के राष्ट्रपति बनने के बाद कुछ ऐसे बदलाव देखने को मिलेंगे जो न तो अमेरिका की प्रकृति से मेल खाते होंगे न वहां रह रहे अल्पसंख्यकों के लिए बेहतर होगा। लेकिन क्या लोकतंत्र का हिमायती अमेरिका में ट्रंप और उनकी सरकार के लिए इतना आसान होगा? उनके राष्ट्रपति बनने की प्रक्रिया अर्थात् उनके शपथ लेते वक्त भी मिश्रित भाव में ही सही लेकिन विश्व के हर कोने में ऐसी आशंकाएं जाहिर की जा रही थी कि ट्रंप हर परंपरा को बदलने वाले हैं.उन तमाम फैसलों को बदलने वाले हैं जो उनके पूर्ववत् अमेरिकी आकाओं ने लिए हैं।शपथ ग्रहण के तुरंत बाद मीडिया में ऐसी तस्वीर उभारी गई की बस अब ट्रंप्म सबकुछ बदलने वाले हैं.
ट्रप्म ने कुछ फैसले लिए भी जो ओबामा के समय में ही कम विवादित नहीं रहा ओबामा बमुश्किल ऐसे फैसलों पर सहमति बना सके या फिर अपने सार्वभौम आदेश वीटो का प्रयोग किया.कुछ मायने में ऐसे फैसलों पर रिपब्लिकन राय पहले से ही जुदा थी और ऐसी उम्मीद थी भी कि ट्रप्म अगर राष्ट्रपति बनते हैं तो ये फैसले बदले जाएंगे...कुछ बदले भी गए और आने वाले दिनों में रिपब्लिकन थॉट के मुताबिक बदले भी जाएंगे।...
ट्रप्म की ताजपोशी की खबरें जब दुनिया में आम होने लगी तो ठीक वैसी ही लहर चल रही थी जैसा हमारे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बन जाने के कयासों के बीच उठी थी हालांकि दोनों के स्कूल की तुलना करना बेमानी है, लेकिन अगर उनके आलोचको के क्लास की बात की जाए तो दोनों एक जैसी विचारधाराएं वाले ही लगते हैं। मोदी की ताजपोशी की आशंकाओं के बीच आलोचकों ने क्या नहीं कहा था। यही नहीं आज ट्रम्प को राष्ट्रपति चुनने वाले अमेरिका ने भी गुजरात शासन को जोड़ते हुए कई तरह की आशंकाएं जाहिर की थी। लेकिन प्रधानमंत्री मोदी उन सभी पूर्वाग्रहों को गलत साबित कर दिया। उन्होनें कई ऐसे अहम फैसले लिए जिन्हे लेकर अर्थशास्त्री और समाजशात्री दूरगामी परिणामों के रूप में इसे देखते हैं। कई बार मोदी पर अमेरिकी राष्ट्रपति ओबामा की नकल करने का आरोप भी आलोचक लगाते रहे हैं मोदी के यस वी कैन वी डू नारे को ओबामा के नारे से जोड़कर लोग देखते हैं यहां तक की मोदी के विदेश यात्रा में जाने के दौरान एयरइंडिया वन में चढ़ने का अंदाज भी अमेरिकी राष्ट्रपति का नकल मानते हैं। जो भी हो ये साफ हो गया है, चौतरफा विकास से ओतप्रोत अग्रसर होते भारत को अब अमेरिका की जरुरत नहीं, लेकिन अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव में मोदी के नारे की नकल और भारतीय समुदाय और हिंदुओं को लेकर की गई अपनी टिप्पणी से ट्रम्प साफ कर चुके हैं कि आने वाले दिनों में भारत के साथ उनके रिश्ते प्रगाढ होते जाएंगे, इसे अतिश्योक्ति न मानें तो शायद पाकिस्तान से भी इस रिश्ते को आगे ले जा सकते हैं ट्रम्प।
अमेरीका चुनाव से आईटी सेक्टर हमेशा डरता आया है। इस बार ये डर इसलिए ज्यादा है क्योंकि ट्रम्प नौकरी अमेरिकियों को देने की लगातार बात कर रहे हैं और एच 1 बी वीजा को कई संशोधनों के साथ कांग्रेस में भेजा गया है जिससे अमेरिका में भारतीय आईटी कंपनियों के लिए भारतीय इंजीनियरों को नौकरी दे पाना कठिन हो जाएगा ऐसे में विशेषज्ञ मानते हैं कि अमेरिका स्थित इन कंपनियों को अमेरिकियों को ही नौकरी देनी चाहिए।दूसरा धरा ये मानकर चल रहा है कि अगर नियमों में बदलाव आता है तो इसे लागू होने में दो साल से अधिक का वक्त लगेगा और इतना समय काफी है आईटी कंपनियों को अपनी अगली रणनीति पर काम करने के लिए। साथ ही इसका प्रभाव इसलिए भी कम होगा क्योंकि पहले से ये कंपनियां एच 1 बी वीजा से कहीं अधिक मोटी सैलरी अपने एप्लॉई को दे रहे हैं। भारतीय आईटी कंपनियां कोई छोटी कंपनियां नहीं हैं। ग्लोबल आउटसोर्सिंग मार्केट में भारतीय आईटी कंपनियों की बाजार हिस्सेदारी करीब 54 फीसदी है। अगर आर्थिक माहौल सही रहा तो ये आईटी कंपनियां इस बढ़े बोझ को भी बहुत आसानी से उठा लेंगी। सभी आईटी कंपनियों को पहले से ही इस तरह की चुनौतियों की आशंका थी इसलिए वे ऑटोमेशन पर भी फोकस कर रही हैं। सरबजीत कौर नांगरा का कहना है कि भारतीय आईटी कंपनियां इस तरह की चुनौतियों से निपटने के लिए तैयार हैं। इसलिए इससे ज्यादा चिंतित होने की जरूरत नहीं है। एक चर्चित अमेरिकी रिपोर्ट में कहा गया है कि भारतीय आईटी सेवा उद्योग में 6.4 लाख निम्न कौशल वाले लोगों की नौकरियां अगले पांच वर्षों में ऑटोमेशन रोबोटिक्स और कृत्रिम खुफिया व्यवस्था बढ़ने से जा सकती हैं। वर्ष 2021 तक वैश्विक स्तर पर आईटी नौकरियों में नौ प्रतिशत कमी आने की बात है। भारत में आई बीपीएम कर्मचारियों की संख्या मौजूदा वित्त वर्ष में 15 लाख तक पहुंच गई है।
भारत की सीमा और अमेरिका की मनोवैज्ञानिक सीमा में जबरदस्त अंतर ही अमेरिका को आतंकवाद की परिभाषा को समझाने में दशकों लग गए। लेकिन 9/11 हमले के बाद अमेरिका ने नजदीक से जाना कि आतंकवाद, आतंकवाद होता है। सीमा बदल जाने से इसकी प्रकृति नहीं बदलती। दहशत का मुखौटा लिए आतंकवाद से भारत आजादी के बाद से ही पीड़ित है। लेकिन, भारत के बार बार विश्व समुदाय के सामने इस पीड़ा को बताते रहने का कोई खास असर नहीं दिखा था। दरअसल, अमेरिकी बॉडर्स को देंखे तो कभी अमरिकियों ने सीमापार की गतिविधियों का सामना नहीं किया, ना कभी उनके लिए कोई देश खतरा बन कर उभरा। इसलिए अमेरिकी आकाओं को ये भरपूर छूट मिली कि वो अपनी सेना का इस्तेमाल दूसरे देशों पर अपनी धौंस जमाने के लिए करें। चाहे ये बुश और सद्दाम के व्यक्तिगत दुश्मनी का ही मुद्दा क्यों न हो उसमें भी अमेरिकी सैनिकों का खूब दोहन किया गया। लेकिन अपने शपथ समारोह में ही ट्रम्प ने साफ कर दिया कि अब ऐसा नहीं होगा. हम अपने देश को न बचाकर दूसरे देशों की सीमाओं की रक्षा कर रहे थे.ट्रप्म अगर सामरिक फैसलों को बदलते भी हैं तो यह अमेरिका के भारीभरकम सैन्य खर्च में कटौती ही होगी जो अभी तक अमेरिकी हितों की अनदेखी कर सिर्फ दुनिया के देशों में अमेरिकी शाख को बुलंद रखने के लिए की जा रही थी। लेकिन, अमेरिका पर हुए आतंकी हमले के बाद न सिर्फ पूरे विश्व ने इसकी विभीषिका को पूरी दुनिया ने जाना बल्कि अमेरिकियों पर इस अवसाद का असर इतना ज्यादा रहा कि टरबन पहनने वाले हर व्यक्ति को ओसामा का अनुयायी समझकर कई साल तक हमले होते रहे।जाहिर है इस हमले के बाद अमेरिका ने भारत के साथ सहयोग करना शुरु किया। इससे पहले भारत को अमेरिका ने इतने करीब से कभी नहीं जाना था।संबंधों का आलम ये था कि बुश जुनियर ने भारतीय प्रधानमंत्री के नाम को लेकर अनभिज्ञयता जताते हुए पूछा था, ‘अटल कौन हैं?’ लेकिन ओबामा के भारत प्रेम और प्रधानमंत्री मोदी के पाकिस्तान को अलग थलग करने की नीति, वैश्विक मंदी के अलावा भारत का समृद्ध विकास दर और बाजार ने अमेरिका को मजबूर कर दिया कि वो भारत से संबंधों को नई उंचाईं दे। शायद ये भी एक वजह रही अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव के दौरान भारतीय समुदाय से समर्थन प्राप्त करने के लिए ट्म्प, मोदी के नारे अबकि बार ट्रम्प सरकार के रुप में नकल करते नजर आए।
भारत के उन्मुक्त विकास को चुनौती देने की हिम्मत फिलहाल अमेरिका के नीति निर्माता शायद ही उठा सकें। खासकर दक्षिणपूर्ण एशिया में चीन की बढ़ती चुनौतियों का सामना करने के लिए भी अमेरिका को भारत के सहयोग की जरूरत पड़ रही है। ओबामा के समय पाकिस्तान की जगह भारत को इस नीति के तहत जोड़ने की नीति को बदलना भी रिपब्लिकन सरकार के लिए इतना आसान नहीं होगा। साथ ही पाकिस्तान द्वारा आतंकवाद पोषण की नीति की ट्रम्प मुखालफत कर चुके हैं। अमेरिका के वर्तमान राष्ट्रपति डोनाल्ड जे ट्रम्प वन चाइना पॉलिसी पर पहले ही स्पष्ट बोल चुके हैं कि ड्रैगन की आंखे दिखाते रहने और रियायते दिए बगैर इस पॉलिसी का कोई मतलब नहीं है, इसलिए ट्रम्प ने चीन को उकसाते हुए ताइवान से संबंधो को पहली बार तव्वजों देता दिखा है।वन चाइना पॉलिसी के जरिए अमेरिका ताइवान को चीन के प्रांत के रूप में मानता रहा है।लेकिन ट्रम्प ने संकेत दे दिया है कि अगर चाइना अमेरिका को अपना बाजार नहीं देगा तो वो भी चीन के साथ संबंधों को नया आयाम देगा। ऐसे में भारत के साथ निर्विवादित संबंधों को अमेरिका की ट्रम्प सरकार आने वाले दिनों में अहमियत देती नजर आएगी। जरूरत है, हमारे मजबूत नेतृत्व को अमेरिका के इन नए बयार को अपने अनुकूल कैसे बनाया जाए।

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