ये कैसी छिछोरी राजनीति..
राबड़ी को सुना लगा चलो गंवार औरत है अपना अंदाज होता है उनका भी। फिर अचानक से उनके शासनकाल की याद हो आयी।आखिर उस औरत ने शासन को कैसे चलाया होगा? सचमुच बिहार में जिस तरह से जातीय समीकरण मौजूद था, उसे धवस्त जरूर किया इस परिवार ने। शायद इसके लिए मीडिया को भी श्रेय जाता है ।पर अब वहां के लोग विकास का अर्थ भी समझने लगे हैं उम्मीद तो यही होनी चाहिए कि ऐसी हालत बिहार की दुबारा न हो जैसा लालू एंड कम्पनी ने पंद्रह साल में कर दिया।अकेला चना भांड नहीं फोड़ता सो इस डूबे राज्य को अकेले नीतीश तो ठीक नहीं कर सकते उनके साथ भी ऐसे लोग नहीं जो उनके सदकार्यों में उनका साथ दें...इनके साथ भी कुछ राबड़ी देवी जैसे लोग हैं तो कुछ लालू जैसे..खुद नीतीश के बारे में नहीं जानता उम्मीद तो यही है कि जब वो गद्दी से उतरेंगे,तब कुछ ऐसा उन्होने नहीं किया होगा जिसके लिए उनपर किसी तरह के छिटे पड़ें।खैर राबड़ी तो चलिए गंवार है स्कूल जाने की कभी जहमत नहीं उठाया पर ये मायावती और मेनका को क्या हो गया जो आपस में ऐसे लड़ रही हैं जैसे उनपर कोई जिम्मेदारी नहीं एक सबसे संस्कारी मां खुद को बताती है,तो एक बिन मां बेहतर मां होने की बात करती है और फिर किसी हद तक बयान दे डालती हैं। इन लोगों को ये समझ क्यों नहीं आता कि जिस गरिमामयी पद पर ये लोग आसीन हैं,वहां से बोला गया एक वाक्य भी ब्रह्म लकीर की तरह हो जाता है।उपर से ये मीडिया उसे अजीब तरह से पेश कर बड़ा बना देता है।तो क्या नेता संयम नहीं रख सकते क्या मुद्दे खत्म हो गये जो व्यक्तिगत आक्षेप करने से राजनेता गुरेज़ नहीं कर रहे?गलती हमारी ही तो है, जो हम ऐसे लोगों को चुनते हैं...जिनमे संयम तो है ही नहीं।कोई खास वर्ग को निशाना बना कर वोट बटोरने की कोशिश करता है तो कोई गालियां तक देकर मतदाताओं को रिझाता है।पता नहीं हम मतदाता कब सुधरेंगे...
टिप्पणियाँ